दमन की राह

जिस गति से महिलाएं तमाम विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला कर आगे आ रही हैं, बलात्कार की लगातार बढ़ती घटनाएं उनके मनोबल को तोड़ने की जमीन तैयार कर रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2008 से 2012 के बीच स्त्रियों के खिलाफ अत्याचार के मामलों में 24.7 फीसद की वृद्धि हुई है। राज्य की ओर से जनता को सुरक्षा प्रदान करने की अवधारणाएं खोखली साबित हो रही हैं। सवाल है कि जिस समाज में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम नहीं हैं, क्या वह प्रगतिशील कहलाने का अधिकारी है? क्या ऐसे समाज और ऐसी संस्कृति को ढोते हुए हम जगद्गुरु कहे जाने या दुनिया को राह दिखाने का दम भर सकते हैं? क्या यहां के नीति नियंता और बुद्धिजीवी भी इन घटनाओं के आदी हो चुके हैं या चाय की चुस्कियों के साथ भूलने की आदत डाल बैठे हैं? सोलह दिसंबर, 2012 की घटना के बाद कई तरह की कानूनी कवायदों की बात उठी थी। लेकिन पुलिस, न्यायपालिका से लेकर समाज तक की हालत किसी से छिपी नहीं है। वर्तमान लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व जरूर बढ़ा है, लेकिन यह समर्थन सभी स्तरों पर मिला है, इसका दावा नहीं किया जा सकता। जमीनी हकीकत यह है कि दमन और शोषण के एक तरीके के तौर पर महिलाओं का बलात्कार किया जाता है या उनकी हत्या कर दी जाती है, लेकिन मीडिया की विभाजित दृष्टि के चलते कई बार ऐसी खबरें सामने नहीं आ पातीं। बहुत सारे मामले ऐसे भी हैं जिनमें बलात्कार की शिकार महिला द्वारा अपराधियों के खौफ और लोकलाज जैसे कई तरह के दबावों के चलते रिपोर्ट तक नहीं लिखवाई जाती। मीडिया में भी बलात्कार की उन्हीं घटनाओं का जिक्र होता है, जिन्हें किसी तरह दबाया नहीं जा सका। जबकि बलात्कार अपने आपमें मानवीयता के तमाम तकाजों का हनन है। वरना क्या वजह है कि स्कूल में पढ़ने वाली कुछ दलित छात्राओं से उच्च कही जाने वाली जाति के दबंग बलात्कार करते हैं, न्याय की गुहार लगाते हुए अपने परिवारों के साथ खुद पीड़ित बच्चियां लंबे समय तक प्रदर्शन करती रहती हैं, लेकिन न्याय के नाम पर या तो उन्हें उपेक्षा मिलती है या फिर महज खानापूर्ति कर दी जाती है!अब इतना तो साफ है कि केवल अशिक्षित इस जघन्य अपराध में शामिल नहीं होते, बल्कि शिक्षितों का भी एक बड़ा तबका जाति या आर्थिक-सामाजिक हैसियत, संपन्नता के दंभ में या मानसिक विकृति के चलते ऐसे अपराध कर रहा है। इस समस्या के समाधान के लिए कोई और नहीं आएगा। यह हमारी पैदा की हुई है और हमें ही मिल कर दूर करनी होगी। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ वाली हमारी संस्कृति में इन घटनाओं ने कुछ बेहद कड़वे सवाल खड़े कर दिए हैं। इस गंभीर समस्या के हल के लिए सरकार को अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी निभानी होगी, लेकिन हम सबको सबसे पहले अपने परिवारों से इसके खिलाफ लड़ाई की शुरुआत करनी होगी। जब तक हम अपने घर में बेटों के भीतर स्त्री के प्रति एक बराबरी और कुंठाओं से रहित दृष्टि और मानसिकता का विकास नहीं करते, तब तक तमाम कानूनी कवायदें, महिलाओं के आत्मरक्षा के गुर, राजनीतिक गतिविधियां ठोस और स्थायी नतीजे नहीं दे पाएंगी।