उत्पीड़न की जड़ें

आम धारणा यही है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में महिला का भी दोष होता है या यह उसके उकसाने के कारण हुआ होगा। महिलाओं के उत्पीड़न की अनेक घटनाओं के खिलाफ उग्र प्रदर्शन और यौन हिंसा से निपटने के नाटक भी हुए। लेकिन समाज की मूल मानसिकता जस की तस है। हम रोज ही खबरें पढ़-देख रहे हैं कि महिलाओं और युवतियों को तेजाबी हमले, बलात्कार या यौन हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के नोएडा में एक कॉल सेंटर की एक महिला कर्मचारी ने कंपनी के मालिक और उसके साथी पर बलात्कार का आरोप लगाया। लेकिन प्रसारण माध्यमों में कुछ लोगों ने सीधे तौर पर इस मामले को फर्जी करार दिया और स्त्रियों के बारे में अपनी नकारात्मक और विकृत प्रतिक्रिया दी। सवाल है कि हमारा समाज इतना संवेदनहीन और गैर-जिम्मेदार क्यों है!
दरअसल, भारतीय समाज में महिला उत्पीड़न की मानसिकता आदिकाल से ही मौजूद है। जब महिलाएं घर के भीतर थीं, तब पुरुष घर में घुस कर, अपहरण करके या राह चलते उन पर आक्रमण करता था। घर के लोग भी उन पर अत्याचार करने में पीछे नहीं रहते थे। अब वे पुरुषों के साथ घर से सड़क या दफ्तर तक में काम कर रही हैं। अब वह कभी उन्हें लालच देता है, कभी उन पर अनुचित दबाव डालता है और समझौते करने के लिए तरह-तरह से मजबूर करने की कोशिश करता है। समय और समाज बदलने के साथ महिलाओं के शोषण के तरीके भी बदल गए हैं। महिलाओं के लिए पुरुषों के बराबर खड़े होने के अवसर तो खूब दिखते हैं, लेकिन ये आभासी हैं। अक्सर तरक्की और विकास के नाम पर स्त्री शोषण की स्थितियां निर्मित की जाती हैं। नई उपभोक्तावादी संस्कृति में शोषण के कई अदृश्य स्तर और औजार मौजूद हैं, जिनके बहाने शक्तिशाली लोग कमजोरों का शोषण करता हैं।
स्त्री के उत्पीड़न, तिरस्कार और उसे निचले या निम्न दरजे पर समझने की जड़ें हमारे प्राचीन धर्मशास्त्रों, रीति-रिवाजों, संस्कारों और धार्मिक ग्रंथों या धर्म संबंधी कथाओं में पाई जाती हैं। नारी को नीचा दिखाने की परंपरा भारतीय समाज को धर्मशास्त्रों के माध्यम से विरासत में मिली है। स्त्री को छोटा या कमतर समझने की मानसिकता भारतीय समाज की रग-रग में समा चुकी है। असल प्रश्न इसी मानसिकता को बदलने का है। अतीत-मोह का संकट सबसे ज्यादा रूढ़ियों और परंपरागत मूल्यों के संबंध में है। दूसरी ओर, आज चमक-दमक, पैसे का गलत उपयोग, कमाई के काले धंधे, भोग-उपभोग और मनोरंजन के अनेक उत्पाद उन्हें आकर्षित करते हैं।
यहां एक छिपा तथ्य यह है कि विकास के माध्यम और इनके विज्ञापन और मीडिया द्वारा अमीर लोगों के विलासी जीवन के समाचार लोगों को स्त्रियों के प्रति सिर्फ भोगवादी दृष्टि से अवगत कराते हैं। आज के समाज में स्त्री स्वातंत्र्य पर व्यंग्य करने वालों से सवाल किया जाना चाहिए कि क्या वे आज भी सती प्रथा को जारी रखना चाहते हैं? जिस तरह दो-चार पीढ़ी पहले की रूढ़ियां टूटी हैं, उसी तरह आज कुछ विचार, परंपराएं या तौर-तरीके अगर टूटते हैं तो उन्हें नए निर्माण के अर्थ में देखना चाहिए। समय के साथ समाज में कुछ जागरूकता अवश्य आई है। लेकिन अब भी बड़ा हिस्सा महिलाओं के प्रति न केवल अनुदार है, बल्कि अवसर पाकर हैवानियत करने से भी नहीं चूकता है।
बलात्कार को लेकर समाज में एक क्रूर और विकृत किस्म की मानसिकता है, जिसकी वजह से पीड़ित को पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करने से लेकर अदालत में जाने तक हर जगह शर्म का अहसास करवाया जाता है, उसे बेहद अपमानित किया जाता है। बहुत सारे लोग ऐसे मामलों में घृणित रूप से रस लेते हैं। पीड़िता के साथ उसके परिजनों, संबंधियों और सहानुभूति रखने वालों को भी अपमानित किया जाता है। हालांकि अब अपराध को दबाने और अपराधी से डरने की प्रवृत्ति खत्म होने लगी है। इसलिए ऐसे अपराध सामने आने लगे हैं। अन्यायी तब तक अन्याय करता है, जब तक उसे सहा जाए। महिलाओं में इस धारणा को पैदा करने के लिए न्याय-प्रणाली और मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। महिला सशक्तीकरण के तमाम दावों के बाद भी महिलाएं अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं।

गूगल बनाएगा महिलाओं के लिए इंटरनेट आसान

भारत में महिला
भारत में 20 करोड़ से ज्यादा लोग इंटरनेट का प्रयोग करते हैं लेकिन इनमें केवल एक तिहाई ही महिलाएं हैं.
उत्तर प्रदेश के मेरठ में रहने वाली आरती सिंह ने जब पहली बार इंटरनेट का प्रयोग किया तो उनकी उम्र 20 साल थी. आज वो 32 साल की हैं और दो बच्चों की माँ हैं.


अपने साथ की लड़िकयों और महिलाओं के बारे में उन्होंने कहा, "अगर उन्हें समय भी मिलता है और वो इंटरनेट पर जा भी पाती हैं तो उन्हें पता ही नहीं होता है कि किस तरह से अकाउंट खोलने हैं या इंटरनेट का प्रयोग करना है."आरती कहती हैं, "मैं एक दो दिन में एक बार लगभग आधा घंटे के लिए इंटरनेट का प्रयोग कर लेती हूँ. ज़्यादातर तो बच्चे या पति कंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहे होते हैं. मुझे समय ही नहीं मिल पाता."
बहुत से शोध यह कहते हैं कि भारत में महिला सशक्तिकरण में अहम भूमिका निभा कर इंटरनेट उनके जीवन को नई दिशा दे सकता है. इसी दिशा में गूगल ने 'हेल्पिंग वीमेन गेट ऑनलाइन' नाम से एक प्रयास शुरू किया है. इसके तहत अगले साल के अंत तक पाँच करोड़ और महिलाओं को इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है.

जीवन को नई दिशा

आरती सिंह

मेरे बच्चे या मेरे पति अधिकतर कंप्यूटर का प्रयोग कर रहे होते हैं, मुझे समय ही नहीं मिल पाता.
इस परियोजना में महिलाओं के बीच क्लिक करेंइंटरनेट के फायदों के बारे में जागरूकता बढ़ाने, उन्हें इंटरनेट के प्रयोग के बारे में शिक्षित करने का काम किया जाएगा.
भारत में गूगल के सेल्स एंड ऑपेरशन के उपाध्यक्ष और प्रबंध निदेशक राजन आनंदन कहते हैं, "भारत में महिलाओं के लिए इंटरनेट प्रयोग करने में बड़ी बाधा यह है कि उनके लिए इंटरनेट तक पहुँच बनाना मुश्किल है. उन्हें इंटरनेट प्रयोग करने की जानकारी नहीं होती और उन्हें यह भी नहीं पता होता कि इंटरनेट का उनके जीवन में क्या महत्व है."
आरती कहती हैं, "मैंने कई बार अपनी मम्मी को भी सिखाने की कोशिश की, लेकिन उनके लिए इंटरनेट का प्रयोग करना आसान नहीं है."
सुप्रीम कोर्ट में वकील और साइबर लॉ के एक्सपर्ट पवन दुग्गल का कहना है, "जहाँ एक तरफ शहरों में लोगों की मानसिकता बदली है, वहीं ग्रामीण इलाकों में आज भी इंटरनेट के प्रति संकीर्णता देखने को मिलती है. शायद यही कारण है कि भारत में जितनी महिलाएं इंटरनेट पर होनी चाहिएं उतनी नहीं हैं."

बेहतर जीवन

इंटरनेट पर महिला

गूगल महिलाओं के लिए एक ख़ास मास मीडिया अभियान शुरू करेगा
राजन आनंदन कहते हैं, "हमारा 'हेल्पिंग वीमेन गेट ऑनलाइन' प्रयास इन्हीं सब बाधाओं को दूर करके महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने के लिए है. इस कार्यक्रम के अंतर्गत भारत में चलाए जाने वाले बहुत से प्रयासों के माध्यम से वर्ष 2014 के अंत तक पांच करोड़ और महिलाओं को इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य है. हमने कई मामलों में इंटरनेट के ज़रिए महिलाओं को फ़ायदा होते देखा है."
गूगल इस परियोजना में अपने सहयोगियों के साथ मिल कर महिलाओं के लिए क्लिक करेंइंटरनेट तक पहुँचआसान बनाने का प्रयास करेगा. पहले चरण में गूगलक्लिक करेंमहिलाओं को लक्षित कर एक विशेष मास मीडिया अभियान शुरू करेगा.
उनके लिए ख़ास तरह से तैयार की गई वेबसाइट www.hwgo.com का प्रचार करने की योजना है.
इस वेबसाइट पर इंटरनेट पर शुरुआत करने से लेकर महिलाओं से जुड़ी इंटरनेट की बारीकियों तक की जानकारी होगी.
यह वेबसाइट हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में उपलब्ध होगी.
एमबीए की डिग्री हासिल कर चुकी आरती कहती हैं, "यह प्रयास भारत में महिलाओं की मदद कर सकता है क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि हमारे अंदर इच्छा होती है किसी चीज़ को करने की लेकिन हमें पता ही नहीं होता है कि यह कैसे होगा. ऐसे में हम वो चीज़ हम नहीं कर पाते हैं. अगर वेबसाइट पर हमें सही तरह से निर्देश मिलेंगे तो हमारे लिए यह आसान हो जाएगा."
गूगल इंडिया में मार्केटिंग निदेशक संदीप मेनन ने बीबीसी को बताया, "इंटरनेट सशक्तिकरण का मंच है. हमें उम्मीद है कि अगर ज्यादा महिलाएं इंटरनेट का प्रयोग करेंगी तो वो इंटरनेट का भरपूर फ़ायदा उठा सकेंगी साथ ही अपनी और अपने प्रियजनों का जीवन बेहतर बना सकेंगी."
गूगल ने महिलाओं के लिए इंटरनेट को आसान बनाने के लिए एक हेल्पलाइन भी शुरू की है. महिलाएं मुफ्त टेलीफोन सेवा 1800 41 999 77 पर कॉल करके इंटरनेट के बारे में कुछ भी भी पूछ सकती हैं.

परियोजना का परीक्षण

 गूगल

भीलवाड़ा में एक लाख महिलाओं को इंटरनेट प्रयोग करने का प्रशिक्षण दिया गया
क्लिक करेंइंटरनेट प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या के मामले में भारत जल्द ही अमरीका के बाद दूसरा स्थान हासिल करने वाला है.
गूगल की मार्केटिंग टीम से जुड़ी योंका ब्रुनिनी ने बताया, "भारत में अपनी तरह की इस पहली परियोजना को लॉन्च करते हुए हम बहुत उत्साहित हैं."
उन्होंने बताया, "राजस्थान के गाँव भीलवाड़ा में इस परियोजना का परीक्षण किया गया. वहाँ एक लाख महिलाओं को इंटरनेट प्रयोग करने का प्रशिक्षण दिया गया. उन्हें डिजिटल शिक्षा दी गई. हमारा यह प्रयास बेहद सफल रहा."
भीलवाड़ा में 13 से 18 साल की छात्राओं, गृहणियों और कामकाजी महिलाओं को प्रशिक्षण में शामिल किया गया. उन्होंने कहा, "इस प्रयोग से मिली सीख हमें भारत के अन्य हिस्सों में भी काम करने में मदद करेगी."
पवन दुग्गल कहते हैं, "यह एक अच्छा प्रयास है. भारत में अभी ऐसा कोई स्रोत नहीं है जहाँ केवल भारतीय महिलाओं को लक्षित करके चरणबद्ध तरीक़े से इंटरनेट की जानकारी दी जाती हो. तो इस क्षेत्र में वैक्यूम तो है ही. ऐसे में अगर भारतीय भाषा में कोई स्रोत उपलब्ध होगा तो यह और ज्यादा महिलाओं को इंटरनेट पर लाने में मदद करेगा."


गूगल के इस प्रयास में हिंदुस्तान यूनिलीवर, एक्सिस बैंक और इंटेल भी साथ हैं. इंटेल महिलाओं के लिए 'ईज़ी स्टेप' नाम से एक मोबाइल एप्लिकेशन भी लाने जा रहा है. यह एप्लीकेशन एंड्रॉएड प्लेस्टोर पर उपलब्ध रहेगा.

एक पुरूष ने जिंदगी बर्बाद की, एक संवार रहा है

तेज़ाब हमले की पीड़ित
आठ साल पहले लक्ष्मी की ज़िंदगी में वो घटना घटी जिसने न सिर्फ़ उनकी दुनिया को बदल दिया बल्कि वो पुरूषों से नफ़रत भी करने लगीं.
ये अप्रैल का महीना था जब राजधानी दिल्ली में वो उस बुकस्टोर पर जा रही थीं जहां वो काम पार्ट टाइम काम किया करती थीं.


उन पर तभी भीड़भाड़ वाली सड़क पर कोई पीछे से आया और उसने लक्ष्मी के कंधे पर हाथ रखा, जैसे ही लक्ष्मी ने पलट कर देखा, तो उस व्यक्ति ने उनके चेहरे और गले पर कुछ तरल पदार्थ फेंका.
क्लिक करेंतेज़ाब फेंका गया था. लक्ष्मी बताती हैं, “पहले तो मुझे ठंडा सा लगा है. फिर बड़ी ज़ोर से जलन होने लगी. फिर उस तरल पदार्थ ने मेरी त्वचा को गलाना शुरू किया.”
तेज़ाब फेंकने वाला 32 वर्ष का एक व्यक्ति था जो इस बात से नाराज़ था कि लक्ष्मी ने शादी करने के लिए उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. लक्ष्मी की उम्र उस वक्त 15 वर्ष थी.
वो बताती हैं, “इसके बाद मैं लंबे समय तक पुरूषों से नफ़रत करती रही.”

‘खोखले शब्द’

लक्ष्मी कहती हैं, “प्यार शब्द को मैं कभी समझ ही नहीं पाई थी. प्यार की वो परिभाषा जो बॉलीवुड फिल्मों में दिखाई जाती है, उससे मुझे भय होता था. मैं प्रेम भरे गीत गाया करती थी लेकिन उनके शब्द मेरे लिए खोखले थे.”
उनका ये नज़रिया तब तक रहा, जब तक वो आलोक दीक्षित से नहीं मिली थीं. आलोक दीक्षित कानपुर के रहने वाले हैं और पत्रकार रह चुके हैं.
उनकी मुलाकात लक्ष्मी से तेज़ाब हमलों को रोकने की एक मुहिम के दौरान हुई और फिर उन्हें एक दूसरे से प्यार हो गया.
अब ये दोनों दिल्ली के पास एक इलाके में रहते हैं और अपने छोटे से दफ्तर से मिल कर तेजाब हमलों के ख़िलाफ़ मुहिम चला रहे हैं.


लक्ष्मी की हमले से पहले की तस्वीर जब वो 15 साल की थीं
उनकी इस मुहिम से तेज़ाब हमलों की लगभग 50 पीड़ित जुड़ी हुई हैं. लक्ष्मी इस मुहिम का चेहरा है जो एसिड अटैक की पीड़ितों को मदद और आर्थिक सहायता मुहैया कराती है.
लक्ष्मी बताती हैं, “आलोक मेरे लिए ताज़ा हवा के झोंके की तरह थे. मैं बहुत घुटन और बोझ महसूस कर रही थी. मैंने महसूस किया कि वो मेरे साथ इस बोझ को मिल कर उठाने के लिए तैयार हैं.”
25 वर्षीय आलोक दीक्षित अपनी नौकरी छोड़ कर इस मुहिम से जुड़े हैं. वो कहते हैं कि आपसी सम्मान और एक साथ रहने की भावना प्यार में महकती है.
वो कहते हैं, “मैं लक्ष्मी का बहुत अधिक सम्मान करता हूं. वो बहुत ताक़त देती हैं. उन्होंने मुश्किल हालात में भी लड़ने का फैसला किया जबकि उनके जैसी बहुत सी पीड़ित महिलाओं का साथ उनके परिवार वाले ही नहीं देते हैं या फिर वो ख़ुद ही अपने घरों से निकलना नहीं चाहती हैं.”
आलोक दीक्षित बताते हैं, “उन्होंने दूसरी पीड़ित महिलाओं को भी आत्मविश्वास दिया है जो उन्हें उम्मीद की किरण के तौर पर देखती हैं. लक्ष्मी ने इन महिलाओं को घर से बाहर निकलने की ताक़त दी है. लेकिन कहना होगा कि इन महिलाओं के लिए बाहर निकलना आसान नहीं होता है, लोग उन्हें घूरते हैं.”

'प्रिंस चार्मिंग'

"एक पुरूष ने मेरी जिंदगी को बर्बाद किया और दूसरा पुरूष इसे संवार रहा है. आलोक ने मुझे मूल्यवान जिंदगी जीने और व्यक्ति के तौर पर आगे बढ़ने की वजह दी है."
लक्ष्मी, तेज़ाब हमले की पीड़ित
लक्ष्मी बताती हैं कि उन्होंने आलोक की रोज़मर्रा की जिंदगी में कई रंग जोड़े हैं, ख़ास कर उनके कपड़ों में.
वो बताती हैं, “आलोक बहुत ही नीरस कपड़े पहनते थे. मैंने उनके कपड़ों को पहले से ज़्यादा रंग दिए हैं. उन्होंने हाल ही में सिंड्रेला फिल्म देखी. इससे पहले उन्होंने कभी सिंड्रेला के बारे में नहीं सुना था. मैंने उन्हें बताया कि वही मेरे प्रिंस चार्मिंग हैं.”
एक सवाल जो अकसर इन दिनों लक्ष्मी और आलोक से पूछा जाता है, वो है – क्या वो शादी करेंगे.
आलोक कहते हैं, “हम साथ रहेंगे लेकिन शादी नहीं करेंगे. हम सामाजिक प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं, चाहे वो शादी हो या फिर हमारे समाज में महिलाओं के साथ होने वाला बर्ताव. हम ख़ुद कैसे इसका हिस्सा बन सकते हैं?”
हालांकि लक्ष्मी को विश्वास है कि किसी न किसी दिन वो शादी के बंधन में बंधेंगे.
वो कहती हैं, “मैं आलोक के फ़ैसले का सम्मान करती हूं और इसका पालन करती हूं. लेकिन कहीं न कहीं मुझे उम्मीद है कि हमारी दोस्ती और प्यार धीरे धीरे शादी की तरफ़ जाएगा.”
लक्ष्मी के लिए अपना प्यार पाने का सफर आसान बिल्कुल नहीं था.
तेज़ाब हमले की पीड़ित
तेज़ाब हमले ने उनके चेहरे को बिगाड़ दिया था. उन्हें कई कष्टदायक ऑपरेशनों से गुज़रना पड़ा जिससे न सिर्फ उन्हें बेहद कमज़ोरी आई बल्कि उनके परिवार की आर्थिक हालत भी पूरी तरह खस्ता हो गई.

मुश्किल हालात

पिछले साल उनके पिता बीमार पड़े गए जिसके बाद उनका निधन हो गया. उनके पिता कुक का काम करते थे और परिवार का गुज़ारा चलाते थे. पिता की मौत के बाद उनके भाई को टीबी हो गई.
घर चलाना लगातार मुश्किल बना हुआ है. उनकी मां के पास कभी कभी इतने पैसे भी नहीं होते कि वो रसोई गैस ख़रीद सकें.
लक्ष्मी ही अकेली कमाने वाली हैं और उनकी आमदनी का भी कोई स्थायी ज़रिया नहीं है क्योंकि तेज़ाब हमला विरोधी उनकी मुहिम मुख्यतः दान से मिले पैसे से ही चलती है.
लेकिन ये सब हालात भी लक्ष्मी को अपने इरादों के लिए संघर्ष करने से नहीं रोक पाते हैं.
पिछले साल उनकी तरफ़ से दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सभी क्लिक करेंराज्य सरकारों को निर्देश दिया कि वो तेज़ाब की बिक्री के लिए नीति तैयार करें.
लक्ष्मी कहती हैं, “मैं तेज़ाब हमले की अन्य पीड़ितों के संपर्क में आई. मैंने सोचा कि ये ठीक नहीं है कि तेज़ाब यूं ही कहीं भी उपलब्ध हो. कोई भी इसे ख़रीद सकता है. इससे तो महिलाओं के लिए ख़तरा पैदा होता है.”
"हम साथ रहेंगे लेकिन शादी नहीं करेंगे. हम सामाजिक प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं, चाहे वो शादी हो या फिर हमारे समाज में महिलाओं के साथ होने वाला बर्ताव. हम ख़ुद कैसे इसका हिस्सा बन सकते हैं?"
आलोक दीक्षित, लक्ष्मी के साथी
अब आलोक दीक्षित और अन्य कार्यकर्ताओं के साथ मिल कर लक्ष्मी ने लोगों में जागरुकता पैदा करने के लिए एक मुहिम छेड़ी है ताकि हमले की स्थिति में वो हस्तक्षेप कर उससे बेहतर तरीके से निपट सकें.

जीने की वजह

लक्ष्मी कहती हैं कि आलोक ने उन्हें एक मूल्यवान ज़िंदगी जीने की वजह दी है.
वो कहती हैं, “जिस दिन मुझ पर तेज़ाब फेंका गया तो मेरी मदद करने के लिए कोई आगे नहीं आया. मुझे याद है कि वहां जितने भी लोग थे मैं उनसे मदद मांगती रही लेकिन कोई आगे नहीं आया.”
लक्ष्मी के अनुसार, “तेज़ाब की वजह से मैं देख नहीं पा रही थी और पास ही सड़क से गुज़रने वाली गाड़ियों से मुझे टक्कर भी लगी. लेकिन लोगों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था. अगर मुझे समय पर अस्पताल पहुंचा दिया जाता तो मैं इतनी ज़्यादा नहीं चलती.”
लक्ष्मी का कहना है कि आलोक उनकी सेहत का ख़्याल रखते और उनकी ‘विशेष ज़रूरतों’ को अच्छी तरह समझते हैं.
तेज़ाब हमले के बाद जिंदगी बिल्कुल भी आसान नहीं होती. उनकी त्वचा को जहां लगातार संक्रमण का जोखिम बना रहता है, वहीं उनकी मनस्थिति भी बदलती रहती है.


वो कहती हैं, “एक पुरूष ने मेरी जिंदगी को बर्बाद किया और दूसरा पुरूष इसे संवार रहा है. आलोक ने मुझे मूल्यवान जिंदगी जीने और व्यक्ति के तौर पर आगे बढ़ने की वजह दी है.”

अशालीनता को भी लांघती टिप्पणी


चिन्मय मिश्र

रेप

’’स्त्री’’ को ’’स्त्री अंग’’ से हटकर कल्पना करने की आदत किसी के मन में पनप नहीं पाई. ’’अंग’’ ही स्त्री का प्रथम एवं मुख्य विषय है. इस अंग को हमेशा से पुरुष ने खाद्य के रूप में ग्रहण किया है. मानों यह अंग पुरुष के प्रसाद के लिए ही बना है. इस अंग को पुरुष की बलि वेदी पर चढ़ना ही होगा.- तस्लीमा नसरीन

महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते विषवमन और उन्हें कमतर समझने की पुरुषवादी सोच ने, पिछले हफ्ते भारत में गिरावट की नई बुलंदी पा ली है. इसमें भारत के दो सर्वोच्च संस्थाओं में कार्यरत वरिष्ठ एवं वरिष्ठतम सदस्यों के तथाकथित कृत्य एवं सार्वजनिक टिप्पणी ने पूर्णाहुति देने का कार्य किया है. पहली घटना सर्वोच्च न्यायालय के हाल ही में अवकाश पाए एक न्यायाधीश से संबंधित है, जिसमें एक कानून प्रशिक्षु स्टेला जेम्स ने अपने ब्लॉग में यह आरोप लगाया है कि उपरोक्त न्यायाधीश द्वारा 24 दिसंबर 2012 की रात को दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में उसके साथ यौनिक दुर्व्यवहार किया गया.

याद करिए, यह वही समय है जबकि पूरी दिल्ली और देश 16 दिसंबर को निर्भया के साथ हुए अमानुषिक कृत्य के विरोध में अपने पैरों पर था और दूसरी ओर न्यायाधीश इस सबके प्रति अपनी उपेक्षा दर्शाते हुए मनमानी पर उतारू थे. स्टेला जेम्स ने यह भी आरोप लगाया है कि इसी न्यायाधीश ने अन्य प्रशिक्षु लड़कियों के साथ भी ऐसा किया है. वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की गंभीरता का संज्ञान लेते हुए एक तीन सदस्यीय जांच समिति का गठन कर दिया है, जो कि दो हफ्ते में अपनी रिपोर्ट देगी.

दूसरी घटना भी राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली की है. इसमें केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक रंजीत सिन्हा ने उनके संस्थान द्वारा खेलों में सट्टेबाजी को वैधानिक बनाने पर आयोजित एक समूह चर्चा में कहा ’’ये कुछ इस तरह से हैं, कि यदि आप बलात्कार को रोक नहीं पा रही हैं, तो उसका मजा लीजिए!’’ क्या इससे अशालीन, भद्दी और वीभत्स टिप्पणी की जा सकती है? क्या फांसी पर चढ़ाए जा रहे व्यक्ति से हम यह कह सकते हैं कि उसकी मौत अब अपरिहार्य है अतएव वह अब इसका आनंद लेने लगे? क्या हलाल होते बकरे से यह उम्मीद की जा सकती है कि चाकू की रगड़ के साथ वह नाचने लगे?

सवाल उठता है कि हम किसकी तुलना किससे कर रहे हैं. रंजीत सिन्हा भविष्य में यह भी कह सकते हैं कि, ’’हम भ्रष्टाचार पर काबू नहीं कर पा रहे हैं, ऐसे में भ्रष्टाचार को वैधानिक ठहरा देना चाहिए.’’ महिलाओं पर इस तरह की सार्वजनिक टिप्पणी वह भी देश के ’’सुपर कॉप’’ द्वारा, साफ दर्शा रही है कि अंततः महिलाओं के सामने कितनी बड़ी चुनौती है.

हमारे देश का एक वर्ग है जो वैश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाना चाहता है. इसके पीछे उसका एक थोथला तर्क यह है कि इससे उनकी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच आसान होगी. यानि बजाये बुराई को समाप्त करने के, उसे अपना लिया जाए. इस बीच अनेक समाचार पत्रों में खुलेआम ऐसे विज्ञापन छप रहे हैं, जिनमें ’’मालिश’’ करने वाले युवक-युवतियों को एक ही दिन में 15 से 25 हजार रु. तक की आमदनी का लालच दिया जा रहा है!

प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखिका सिमोन बोविअर ने एक अमर वाक्य, ’’स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है’’ रचा था. उनसे इसी वाक्य पर एलिज श्वेजर्स ने लंबा साक्षात्कार लिया था. इस दौरान सिमोन ने कहा था, ’’मेरी समझ से पुरुष की तमाम न्यूनताएं आज औरत में मौजूद नहीं हैं. जैसे खुद को बहुत संजीदगी से लेने का घटिया पुरुषवादी तरीका, उनकी अहम्मन्यता, उनका अहंकार.’’ उन्होंने यह भी कहा था कि उपरोक्त तरह का जीवन जीने वाली महिलाएं भी पुरुषोचित ही हैं.

सीबीआई द्वारा भंवरी देवी वाले मामले की जांच रिपोर्ट के बाद पीड़िता की टिप्पणी पर भी गौर करना आवश्यक है, जिसमें उन्होंने कहा था, ’’सीबीआई खतरनाक है.’’ आज भी बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के तथाकथित ’’हाइ प्रोफाइल’’ मामले सीबीआई के पास हैं. इसमें नवीनतम राजस्थान के पूर्व मंत्री बाबूलाल नागर का है. क्या इन सबकी तफतीश अब रंजीत सिन्हा के सार्वजनिक विचारों के आधार पर होगी और दोषियों को सजा दिलवाने के बजाए पीड़िताओं की ’’कुछ’’ सलाहें दी जाएंगी?

एक गंभीर मसले पर हल्की टिप्पणी मुख्य समस्या से ध्यान हटाने का सदियों पुराना और सड़ांध मारता फार्मूला है. लेकिन अब ऐसा बहुत बड़े पैमाने पर होने लगा है. पिछले दिनों एक कार्यक्रम के दौरान एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा अनजाने में व पूर्व माफी मांगते हुए कुछ महिला आधारित चुटकुले सुनने को मिले थे. संकोचवश वहां इसका विरोध न करना मुझे आज और अधिक परेशान और शर्मिंदा कर रहा है. रंजीत सिन्हा ने जिस समय यह टिप्पणी की थी, यदि उसी समय संपूर्ण सदन ने बहिर्गमन कर दिया होता तो शायद इस तरह की टिप्पणियों पर रोक लगने में सहायता मिलती.

आज आवश्यकता इस बात की है कि सबसे पहले रंजीत सिन्हा की बर्खास्तगी हो और उसके बाद किसी अगली कार्यवाही की बात की जाए. साथ ही यदि वह पद पर बने रहते हैं तो राष्ट्रीय महिला आयोग व अन्य संस्थाओं को मांग करना चाहिए कि उनके निदेशक पद पर रहते सीबीआई महिलाओं से संबंधित मामलों की जांच निलंबित रखे. उच्चतम पदों पर बैठे ऐसे व्यक्तियों की एक भी गलती को माफ करने का अर्थ है, शोषण व अश्लीलता को नई प्राणवायु देना. साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारा प्रशासन संविधान और संस्थानों से चलता है और व्यक्ति इसमें एक सीमा तक ही महत्वपूर्ण है और यह तो सुनिश्चित ही है कि वह अपरिहार्य नहीं है.

भारत सरकार के पास मौका है कि वह अपने अधिकारों का प्रयोग करे और सीबीआई निदेशक पर कठोरतम कार्यवाही करे. प्रशासनिक तंत्र में सुधार पदानुक्रम में सबसे ऊपरी पायदान पर पदासीन व्यक्ति की गलती को ढांकने से कतई नहीं होना चाहिए. उसे दंडित करना ही एकमात्र उपाय है. क्या हमारी वर्तमान शासन व्यवस्था में ऐसा हो पाना संभव है ?

प्रसिद्ध कवि विस्लावा शिम्बोर्स्का के शब्दों में कहें तो,
हमने सोचा था कि
आखिरकार खुदा को भी
एक अच्छे और ताकतवर इंसान में
भरोसा करना होगा.
लेकिन अफसोस
इस सदी में इंसान अच्छा और ताकतवर
एक साथ नहीं हो सका.
मगर ऐसे इंसान की तलाश जारी रहना चाहिए.

अंतिम सांस तक लड़ने का हौसला

मनीषा भल्ला 

रेप

यह बात वर्ष 2007 की है, जब उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी. सहारनपुर का गांव जमालपुर मुस्लिम बहुल गांव है. यहां गाड़ा जाति के मुसलमानों का दबदबा है, जो बड़ी ज़मीनों के मालिक भी हैं. दलित समाज की स्नेहलता अपनी पांच बेटियों और एक बेटे के साथ इसी गांव में रह रही हैं. स्नेहलता का पति दूसरों के घरों में दूध डालने का काम करता है. उनके पास थोड़ी-सी जमीन है लेकिन पानी नहीं है इसलिए वो किसी काम की नहीं.

स्नेहलता अपनी दास्तां बताने से पहले कहती है ‘’ जी मेरी बेटियां बहुत ज्यादा खूबसूरत हैं...‘’

मैंने कहा कि तुम्हे देखकर लगता ही है कि तुम्हारी बेटियां बहुत खूबसूरत होंगी. फिर वह कहने लगी कि गांव के अमीर और जमींदार घराने का लड़का आलमगीर एक दिन उसके घर आया और बड़ी बेटी से कहकर चला गया कि रात को जंगल में आ जाना. उस समय स्नेहलता घर पर नहीं थी.

बेटी ने आलमगीर से कहा कि ‘’ मेरी मां घर पर नहीं है और मैं नहीं आउंगी.‘’ इस पर आलमगीर ने उसके मुंह पर जोर से थप्पड़ मारा और उसका मोबाइल भी छीन लिया.

स्नेहलता बताती है कि ‘’शाम को जब मैं मनरेगा के काम से घर लौटी तो बच्चों ने मुझे बताया कि आलमीगर आया था और दीदी को बुलाकर गया है. उसने थप्पड़ भी मारे और मोबाइल भी ले गया. फिर रात में मैं और मेरी सास उसके घर गए. उससे पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया ? हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है.‘’

स्नेहलता के अनुसार आलमगीर ने कहा कि अभी तो तुम लोग यहां से चले जाओ क्योंकि मेरे पिता घर पर हैं, कुछ भी हो सकता है. बेटी का मोबाइल आलमगीर के पास ही था. रात को आलमगीर ने स्नेहलता के फोन पर फोन किया कि रक्षा को जंगल में या कोठी पर भेज दो, नहीं तो कुछ हो जाएगा. स्नेहलता का कहना है कि उसने अपनी बेटी रक्षा को तो नहीं भेजा. बल्कि वह खुद रात को अकेली जंगल में चली गई और आलमगीर से पूछा कि ‘’ बता क्या बात है? क्या करना है पूजा का ? जो करना है हिम्मत है तो मेरे साथ करके दिखा.‘’ आलमगीर ने स्नेहलता को वापस भेज दिया.

अगले दिन स्नेहलता पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवाने के लिए चली गई लेकिन आलमगीर और उसके परिवार ने उसे रास्ते में ही रोक लिया और माफी मांगी. कहा कि अब ऐसा नहीं होगा.

स्नेहलता का कहना है कि मैंने भी सोचा कि जवान बेटी है, अफवाहें फैलेंगी, मेरा ज्यादा नुकसान होगा, इसलिए मैंने छोड़ दिया. करीब तीन साल तक मामला ठंडा रहा. कुछ नहीं हुआ. अब उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए और समाजवादी पार्टी की सरकार चुनकर आई. स्नेहलता के अनुसार समाजवादी पार्टी की सरकार आते ही आलमगीर के हौसले बुलंद हो गए. इस बीच स्नेहलता अपनी बड़ी बेटी की शादी कर चुकी थी.

बलात्कार का सरकारी हौसला
नई सरकार आने के छह महीने बाद की बात है. एक दिन स्नेहलता की तबीयत खराब थी. उसके साढ़े तेरह वर्ष की तीसरे नंबर की बेटी जो विकलांग भी थी, वह स्कूल से आई और कहने लगी कि ‘’मां आज घास मैं ले आती हूं.‘’ वह घास लेने चली तो गई लेकिन लौटकर नहीं आई. रात भर स्नेहलता का परिवार उसे ढूंढता रहा. अगले दिन सुबह 12.30 बजे आलमगीर के खेतों के बगल वाले मोहम्मद अब्दुल के खेत में उसकी लाश मिली.

स्नेहलता बताती हैं कि उसे तन पर कपड़े नहीं थे और उसकी गर्दन काटी हुई थी. उसके अनुसार जहां से उसकी बेटी की लाश मिली है, वहां आलमगीर के ही खेत हैं और वे लोग उस रात अपने खेतों को रात भर पानी लगा रहे थे. गांव के दलित समुदाय के लोगों ने स्नेहलता का साथ दिया.

वह बताती है कि इस बीच आलमगीर का परिवार हमेशा कहता रहता था कि कोठी पर आ जाओ, हम बता देंगे कि किसने मारा है तुम्हारी बेटी को. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में बलात्कार साबित हो चुका है. इस मामले में एक ही परिवार के पांच आरोपी थे- आलमगीर, आजम, जुबेर, वाजिद और साजिद लेकिन सजा सिर्फ आलमगीर को हुई. अन्य आरोपियों को छोड़ दिया गया.

सात महीने की जेल काटने के बाद हाल ही में आलमगीर भी बेल पर रिहा होकर घर आ गया है. अब हालात यह हैं कि उसका परिवार लगातार स्नेहलता पर दबाव दे रहा है कि केस वापस ले लिया जाए. स्नेहलता का कहना है कि उसके पति को जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं. वह अकेले दूध डालने भी नहीं जाता. परिवार का कोई भी व्यक्ति अकेला घर से बाहर नहीं निकलता है.

हालात स्नेहलता के खिलाफ हैं लेकिन वह जिंदादिली से कहती है- ‘’मैं अपनी आखिरी सांस तक लड़ूंगी.‘’

उसके जज्बे के आगे सारी परेशानियां छोटी लग रही हैं. वह अपने बाकि के बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ा रही है. खुद अशिक्षित हैं लेकिन बात करने पर बहुत समझदार और सुलझी हुई महिला लगती हैं. उन्हीं की हिम्मत है कि आलमगीर एक दफा सलाखों के पीछे चला गया था. अन्यथा गांव में किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह आलमगीर को जवाब दे सके. स्नेहलता कहती हैं- ‘’ वह मेरी बेटी नहीं थी बल्कि समाज की बेटी थी, उसे न्याय न मिला तो आलमगीर जैसे लोग बेटियों से बलात्कार करते रहेंगे.‘’

बेहतर समाज के लिए

'लीन इन: वुमेन, वर्क एंड विल टु लीड' की लेखिका और फेसबुक की चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर शर्ली आई सैडबर्ग बता रही हैं कि महिलाओं को अवसर देते हुए हमारी संस्थाएं और बेहतर बन सकती हैं।
अभी हमें पुरुषों के मुकाबले असल बराबरी मिली ही नहीं है। उसे पाने से पहले हमें उन सांस्कृतिक और स्टीरियोटाइप मुद्दों पर बात करनी होगी जो औरत की पीठ पर लदे हुए हैं। इस दशक में हर कहीं महिलाओं के लिए विकास की गति बहुत धीमी रही है। मुझे तो लगता है कि हम जेंडर पर बात करने में ही घबराते हैं। मेरी किताब का मूल विषय ही है- लड़कियों और महिलाओं को खुला अवसर मिलना। उन्हें वैसे ही अवसर मिलने चाहिए जैसे लड़कों और पुरुषों को मिले हुए हैं। खासतौर पर नेतृत्व करने के अवसर। मैं आपको एक कहानी बताती हूं। एक महिला ने लिखा- 'शुरुआत में मेरा जॉब सप्ताह में चार ही दिन का था। लेकिन फिर अचानक मुझे लगा कि मैं तो एक दिन एक्स्ट्रा काम कर रही हूं। होता दरअसल यह था कि मेरा बॉस अक्सर मेरे ऑफ के दिन कोई न कोई मीटिंग रख लेता और मुझे जाना पड़ता। यह किताब पढ़ने के बाद एक दिन मैंने तय कर लिया कि बॉस से बात करूंगी। मैंने बात की, और बॉस ने न सिर्फ माफी मांगी बल्कि यह भी कहा कि वह आगे से ऐसा नहीं करेगा।' आंकड़े बताते हैं कि हम सब बायस्ड हैं। मेरे पिता भी इस 'हम' में शामिल हैं। हम लोग इसी तरह पले बढ़े हैं। लेकिन खतरनाक वे लोग हैं जो यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि वे बायस्ड हैं। ऐसे ही लोग महिलाओं से ज्यादा भेदभाव करते हैं। मेरे लिए बहुत जरूरी है कि पुरुष मेरी यह किताब पढ़ें और चल रही बहस में भागीदारी करें। जो पुरुष जेंडर के मामले में संवेदनशील हैं, वे अपने घरों पर बेहतर नजर आते हैं। रिसर्च भी बता रही हैं कि जो पुरुष घर के कामकाज में हाथ बंटाते हैं और बच्चों की देखरेख में सहयोग करते हैं, वे ज्यादा खुश रहते हैं। उनके बच्चे भी अपनी पढ़ाई और काम में अच्छा प्रदर्शन करते हैं। घर पर पुरुषों के लगाव के कई रचनात्मक कारण हैं। मैं भारत में लंबे समय काम कर चुकी हूं। महिलाओं को जितना मौका लीडरशिप का मिलेगा, संस्थाएं उतनी ही बेहतर होती चली जाएंगी। 

वो 98 बच्चों की 'मां' हैं

जयपुर की मनन चतुर्वेदी उन 98 बच्चों की माँ हैं जिन्हें पैदा होते ही भाग्य की बिसात पर बेसहारा छोड़ दिया गया.
जयपुर की 'सुरमन' संस्था की चार दीवारी में एक माँ हैं और छोटे-बड़े 98 बच्चे. ये वो बच्चे हैं जिन्हें उनके जन्मदाता माता-पिता ने किसी सुनसान जगह पर छोड़ दिया.
कोई किसी कूड़े के ढेर पर मिला था तो कोई अस्पताल में लावारिस छोड़ दिया गया था. मनन ने अपनों के हाथों भुला-बिसरा दिए गए इन बच्चों को सीने से लगा लिया ताकि इन बच्चों के माथे पर यतीम होने की इबारत चस्पा न हो.
अपने आंगन में खेल रहे एक एक बच्चे के सिर पर दुलार का हाथ फेरते हुए मनन कहती हैं, "मैं माँ हूँ, ये ही मेरा इन बच्चों से रिश्ता है."
मनन की ममता में अपने पराये का कोई भेद नहीं है. उनकी कोख से जन्मे तीन बच्चे- दो बेटियां और एक बेटा भी इन बच्चों के साथ तरह रहते हैं.
वो कहती हैं, ''हमारा ये संयुक्त परिवार है. सब मिल जुलकर रहते हैं जैसे सगे भाई बहन हों. मेरे लिए सब बराबर हैं. क्योंकि मैं एक माँ हूं."."
'सुरमन का अपनापन'
अब इन बच्चों की फुलवारी उनकी दुनिया है. शुरू में उनके परिवार वालों को अजीब सा लगा लेकिन जब मनन में ख़िदमत का जज़्बा देखा तो वे भी मदद को तैयार हो गए.
मनन ने इस काम के लिए सरकार के आगे हाथ नहीं फैलाए. अपने दम पर उन्होंने संसाधन जुटाए. अब वो जयपुर के पास एक हज़ार बच्चों का एक गांव बसाना चाहती हैं. इसके लिए मनन संसधान जुटा रही है.
17 साल की उपासना पिछले तीन साल से मनन के सुरजन में रह रही हैं. वो 12वीं कक्षा में पढ़ती हैं. माँ के बारे में पूछने पर उपासना बाकी बच्चों की तरह मनन को 'माँ-माँ' कहती हुई मनन के गले से लिपट जाती हैं.
इस संस्था के दायरे में कभी मनन किसी बच्चे को उंगली पकड़ कर चलाती हैं, कभी बलाएं लेती हैं और कभी वो रूठे बच्चों को मनाती हैं.
मनन इन बच्चों को इतना प्यार देती हैं. इसे देखकर सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी अपने माता-पिता के बारे में पूछते हैं?
मनन कहती हैं, "जो बहुत कम उम्र में आते हैं उनके लिए ये ही अपना संसार है लेकिन जो बच्चे थोड़ी बड़ी उम्र में 'सुरमन' आते हैं कभी-कभी वे ज़रूर यादों में खो जाते हैं. मगर हम उन्हें कभी पराएपन का अहसास नहीं होने देते."
मनन का इन बच्चों से यही रिश्ता उन्हें हौसला देता है.

वो 98 बच्चों की 'मां' हैं
जयपुर की मनन चतुर्वेदी उन 98 बच्चों की माँ हैं जिन्हें पैदा होते ही भाग्य की बिसात पर बेसहारा छोड़ दिया गया.
जयपुर की 'सुरमन' संस्था की चार दीवारी में एक माँ हैं और छोटे-बड़े 98 बच्चे. ये वो बच्चे हैं जिन्हें उनके जन्मदाता माता-पिता ने किसी सुनसान जगह पर छोड़ दिया.
कोई किसी कूड़े के ढेर पर मिला था तो कोई अस्पताल में लावारिस छोड़ दिया गया था. मनन ने अपनों के हाथों भुला-बिसरा दिए गए इन बच्चों को सीने से लगा लिया ताकि इन बच्चों के माथे पर यतीम होने की इबारत चस्पा न हो.
अपने आंगन में खेल रहे एक एक बच्चे के सिर पर दुलार का हाथ फेरते हुए मनन कहती हैं, "मैं माँ हूँ, ये ही मेरा इन बच्चों से रिश्ता है."
मनन की ममता में अपने पराये का कोई भेद नहीं है. उनकी कोख से जन्मे तीन बच्चे- दो बेटियां और एक बेटा भी इन बच्चों के साथ तरह रहते हैं.
वो कहती हैं, ''हमारा ये संयुक्त परिवार है. सब मिल जुलकर रहते हैं जैसे सगे भाई बहन हों. मेरे लिए सब बराबर हैं. क्योंकि मैं एक माँ हूं."."
'सुरमन का अपनापन'
अब इन बच्चों की फुलवारी उनकी दुनिया है. शुरू में उनके परिवार वालों को अजीब सा लगा लेकिन जब मनन में ख़िदमत का जज़्बा देखा तो वे भी मदद को तैयार हो गए.
मनन ने इस काम के लिए सरकार के आगे हाथ नहीं फैलाए. अपने दम पर उन्होंने संसाधन जुटाए. अब वो जयपुर के पास एक हज़ार बच्चों का एक गांव बसाना चाहती हैं. इसके लिए मनन संसधान जुटा रही है.
17 साल की उपासना पिछले तीन साल से मनन के सुरजन में रह रही हैं. वो 12वीं कक्षा में पढ़ती हैं. माँ के बारे में पूछने पर उपासना बाकी बच्चों की तरह मनन को 'माँ-माँ' कहती हुई मनन के गले से लिपट जाती हैं.
इस संस्था के दायरे में कभी मनन किसी बच्चे को उंगली पकड़ कर चलाती हैं, कभी बलाएं लेती हैं और कभी वो रूठे बच्चों को मनाती हैं.
मनन इन बच्चों को इतना प्यार देती हैं. इसे देखकर सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी अपने माता-पिता के बारे में पूछते हैं?
मनन कहती हैं, "जो बहुत कम उम्र में आते हैं उनके लिए ये ही अपना संसार है लेकिन जो बच्चे थोड़ी बड़ी उम्र में 'सुरमन' आते हैं कभी-कभी वे ज़रूर यादों में खो जाते हैं. मगर हम उन्हें कभी पराएपन का अहसास नहीं होने देते."
मनन का इन बच्चों से यही रिश्ता उन्हें हौसला देता है.