अशालीनता को भी लांघती टिप्पणी


चिन्मय मिश्र

रेप

’’स्त्री’’ को ’’स्त्री अंग’’ से हटकर कल्पना करने की आदत किसी के मन में पनप नहीं पाई. ’’अंग’’ ही स्त्री का प्रथम एवं मुख्य विषय है. इस अंग को हमेशा से पुरुष ने खाद्य के रूप में ग्रहण किया है. मानों यह अंग पुरुष के प्रसाद के लिए ही बना है. इस अंग को पुरुष की बलि वेदी पर चढ़ना ही होगा.- तस्लीमा नसरीन

महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते विषवमन और उन्हें कमतर समझने की पुरुषवादी सोच ने, पिछले हफ्ते भारत में गिरावट की नई बुलंदी पा ली है. इसमें भारत के दो सर्वोच्च संस्थाओं में कार्यरत वरिष्ठ एवं वरिष्ठतम सदस्यों के तथाकथित कृत्य एवं सार्वजनिक टिप्पणी ने पूर्णाहुति देने का कार्य किया है. पहली घटना सर्वोच्च न्यायालय के हाल ही में अवकाश पाए एक न्यायाधीश से संबंधित है, जिसमें एक कानून प्रशिक्षु स्टेला जेम्स ने अपने ब्लॉग में यह आरोप लगाया है कि उपरोक्त न्यायाधीश द्वारा 24 दिसंबर 2012 की रात को दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में उसके साथ यौनिक दुर्व्यवहार किया गया.

याद करिए, यह वही समय है जबकि पूरी दिल्ली और देश 16 दिसंबर को निर्भया के साथ हुए अमानुषिक कृत्य के विरोध में अपने पैरों पर था और दूसरी ओर न्यायाधीश इस सबके प्रति अपनी उपेक्षा दर्शाते हुए मनमानी पर उतारू थे. स्टेला जेम्स ने यह भी आरोप लगाया है कि इसी न्यायाधीश ने अन्य प्रशिक्षु लड़कियों के साथ भी ऐसा किया है. वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की गंभीरता का संज्ञान लेते हुए एक तीन सदस्यीय जांच समिति का गठन कर दिया है, जो कि दो हफ्ते में अपनी रिपोर्ट देगी.

दूसरी घटना भी राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली की है. इसमें केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक रंजीत सिन्हा ने उनके संस्थान द्वारा खेलों में सट्टेबाजी को वैधानिक बनाने पर आयोजित एक समूह चर्चा में कहा ’’ये कुछ इस तरह से हैं, कि यदि आप बलात्कार को रोक नहीं पा रही हैं, तो उसका मजा लीजिए!’’ क्या इससे अशालीन, भद्दी और वीभत्स टिप्पणी की जा सकती है? क्या फांसी पर चढ़ाए जा रहे व्यक्ति से हम यह कह सकते हैं कि उसकी मौत अब अपरिहार्य है अतएव वह अब इसका आनंद लेने लगे? क्या हलाल होते बकरे से यह उम्मीद की जा सकती है कि चाकू की रगड़ के साथ वह नाचने लगे?

सवाल उठता है कि हम किसकी तुलना किससे कर रहे हैं. रंजीत सिन्हा भविष्य में यह भी कह सकते हैं कि, ’’हम भ्रष्टाचार पर काबू नहीं कर पा रहे हैं, ऐसे में भ्रष्टाचार को वैधानिक ठहरा देना चाहिए.’’ महिलाओं पर इस तरह की सार्वजनिक टिप्पणी वह भी देश के ’’सुपर कॉप’’ द्वारा, साफ दर्शा रही है कि अंततः महिलाओं के सामने कितनी बड़ी चुनौती है.

हमारे देश का एक वर्ग है जो वैश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाना चाहता है. इसके पीछे उसका एक थोथला तर्क यह है कि इससे उनकी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच आसान होगी. यानि बजाये बुराई को समाप्त करने के, उसे अपना लिया जाए. इस बीच अनेक समाचार पत्रों में खुलेआम ऐसे विज्ञापन छप रहे हैं, जिनमें ’’मालिश’’ करने वाले युवक-युवतियों को एक ही दिन में 15 से 25 हजार रु. तक की आमदनी का लालच दिया जा रहा है!

प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखिका सिमोन बोविअर ने एक अमर वाक्य, ’’स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है’’ रचा था. उनसे इसी वाक्य पर एलिज श्वेजर्स ने लंबा साक्षात्कार लिया था. इस दौरान सिमोन ने कहा था, ’’मेरी समझ से पुरुष की तमाम न्यूनताएं आज औरत में मौजूद नहीं हैं. जैसे खुद को बहुत संजीदगी से लेने का घटिया पुरुषवादी तरीका, उनकी अहम्मन्यता, उनका अहंकार.’’ उन्होंने यह भी कहा था कि उपरोक्त तरह का जीवन जीने वाली महिलाएं भी पुरुषोचित ही हैं.

सीबीआई द्वारा भंवरी देवी वाले मामले की जांच रिपोर्ट के बाद पीड़िता की टिप्पणी पर भी गौर करना आवश्यक है, जिसमें उन्होंने कहा था, ’’सीबीआई खतरनाक है.’’ आज भी बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के तथाकथित ’’हाइ प्रोफाइल’’ मामले सीबीआई के पास हैं. इसमें नवीनतम राजस्थान के पूर्व मंत्री बाबूलाल नागर का है. क्या इन सबकी तफतीश अब रंजीत सिन्हा के सार्वजनिक विचारों के आधार पर होगी और दोषियों को सजा दिलवाने के बजाए पीड़िताओं की ’’कुछ’’ सलाहें दी जाएंगी?

एक गंभीर मसले पर हल्की टिप्पणी मुख्य समस्या से ध्यान हटाने का सदियों पुराना और सड़ांध मारता फार्मूला है. लेकिन अब ऐसा बहुत बड़े पैमाने पर होने लगा है. पिछले दिनों एक कार्यक्रम के दौरान एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा अनजाने में व पूर्व माफी मांगते हुए कुछ महिला आधारित चुटकुले सुनने को मिले थे. संकोचवश वहां इसका विरोध न करना मुझे आज और अधिक परेशान और शर्मिंदा कर रहा है. रंजीत सिन्हा ने जिस समय यह टिप्पणी की थी, यदि उसी समय संपूर्ण सदन ने बहिर्गमन कर दिया होता तो शायद इस तरह की टिप्पणियों पर रोक लगने में सहायता मिलती.

आज आवश्यकता इस बात की है कि सबसे पहले रंजीत सिन्हा की बर्खास्तगी हो और उसके बाद किसी अगली कार्यवाही की बात की जाए. साथ ही यदि वह पद पर बने रहते हैं तो राष्ट्रीय महिला आयोग व अन्य संस्थाओं को मांग करना चाहिए कि उनके निदेशक पद पर रहते सीबीआई महिलाओं से संबंधित मामलों की जांच निलंबित रखे. उच्चतम पदों पर बैठे ऐसे व्यक्तियों की एक भी गलती को माफ करने का अर्थ है, शोषण व अश्लीलता को नई प्राणवायु देना. साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारा प्रशासन संविधान और संस्थानों से चलता है और व्यक्ति इसमें एक सीमा तक ही महत्वपूर्ण है और यह तो सुनिश्चित ही है कि वह अपरिहार्य नहीं है.

भारत सरकार के पास मौका है कि वह अपने अधिकारों का प्रयोग करे और सीबीआई निदेशक पर कठोरतम कार्यवाही करे. प्रशासनिक तंत्र में सुधार पदानुक्रम में सबसे ऊपरी पायदान पर पदासीन व्यक्ति की गलती को ढांकने से कतई नहीं होना चाहिए. उसे दंडित करना ही एकमात्र उपाय है. क्या हमारी वर्तमान शासन व्यवस्था में ऐसा हो पाना संभव है ?

प्रसिद्ध कवि विस्लावा शिम्बोर्स्का के शब्दों में कहें तो,
हमने सोचा था कि
आखिरकार खुदा को भी
एक अच्छे और ताकतवर इंसान में
भरोसा करना होगा.
लेकिन अफसोस
इस सदी में इंसान अच्छा और ताकतवर
एक साथ नहीं हो सका.
मगर ऐसे इंसान की तलाश जारी रहना चाहिए.