उत्पीड़न की जड़ें

आम धारणा यही है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में महिला का भी दोष होता है या यह उसके उकसाने के कारण हुआ होगा। महिलाओं के उत्पीड़न की अनेक घटनाओं के खिलाफ उग्र प्रदर्शन और यौन हिंसा से निपटने के नाटक भी हुए। लेकिन समाज की मूल मानसिकता जस की तस है। हम रोज ही खबरें पढ़-देख रहे हैं कि महिलाओं और युवतियों को तेजाबी हमले, बलात्कार या यौन हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के नोएडा में एक कॉल सेंटर की एक महिला कर्मचारी ने कंपनी के मालिक और उसके साथी पर बलात्कार का आरोप लगाया। लेकिन प्रसारण माध्यमों में कुछ लोगों ने सीधे तौर पर इस मामले को फर्जी करार दिया और स्त्रियों के बारे में अपनी नकारात्मक और विकृत प्रतिक्रिया दी। सवाल है कि हमारा समाज इतना संवेदनहीन और गैर-जिम्मेदार क्यों है!
दरअसल, भारतीय समाज में महिला उत्पीड़न की मानसिकता आदिकाल से ही मौजूद है। जब महिलाएं घर के भीतर थीं, तब पुरुष घर में घुस कर, अपहरण करके या राह चलते उन पर आक्रमण करता था। घर के लोग भी उन पर अत्याचार करने में पीछे नहीं रहते थे। अब वे पुरुषों के साथ घर से सड़क या दफ्तर तक में काम कर रही हैं। अब वह कभी उन्हें लालच देता है, कभी उन पर अनुचित दबाव डालता है और समझौते करने के लिए तरह-तरह से मजबूर करने की कोशिश करता है। समय और समाज बदलने के साथ महिलाओं के शोषण के तरीके भी बदल गए हैं। महिलाओं के लिए पुरुषों के बराबर खड़े होने के अवसर तो खूब दिखते हैं, लेकिन ये आभासी हैं। अक्सर तरक्की और विकास के नाम पर स्त्री शोषण की स्थितियां निर्मित की जाती हैं। नई उपभोक्तावादी संस्कृति में शोषण के कई अदृश्य स्तर और औजार मौजूद हैं, जिनके बहाने शक्तिशाली लोग कमजोरों का शोषण करता हैं।
स्त्री के उत्पीड़न, तिरस्कार और उसे निचले या निम्न दरजे पर समझने की जड़ें हमारे प्राचीन धर्मशास्त्रों, रीति-रिवाजों, संस्कारों और धार्मिक ग्रंथों या धर्म संबंधी कथाओं में पाई जाती हैं। नारी को नीचा दिखाने की परंपरा भारतीय समाज को धर्मशास्त्रों के माध्यम से विरासत में मिली है। स्त्री को छोटा या कमतर समझने की मानसिकता भारतीय समाज की रग-रग में समा चुकी है। असल प्रश्न इसी मानसिकता को बदलने का है। अतीत-मोह का संकट सबसे ज्यादा रूढ़ियों और परंपरागत मूल्यों के संबंध में है। दूसरी ओर, आज चमक-दमक, पैसे का गलत उपयोग, कमाई के काले धंधे, भोग-उपभोग और मनोरंजन के अनेक उत्पाद उन्हें आकर्षित करते हैं।
यहां एक छिपा तथ्य यह है कि विकास के माध्यम और इनके विज्ञापन और मीडिया द्वारा अमीर लोगों के विलासी जीवन के समाचार लोगों को स्त्रियों के प्रति सिर्फ भोगवादी दृष्टि से अवगत कराते हैं। आज के समाज में स्त्री स्वातंत्र्य पर व्यंग्य करने वालों से सवाल किया जाना चाहिए कि क्या वे आज भी सती प्रथा को जारी रखना चाहते हैं? जिस तरह दो-चार पीढ़ी पहले की रूढ़ियां टूटी हैं, उसी तरह आज कुछ विचार, परंपराएं या तौर-तरीके अगर टूटते हैं तो उन्हें नए निर्माण के अर्थ में देखना चाहिए। समय के साथ समाज में कुछ जागरूकता अवश्य आई है। लेकिन अब भी बड़ा हिस्सा महिलाओं के प्रति न केवल अनुदार है, बल्कि अवसर पाकर हैवानियत करने से भी नहीं चूकता है।
बलात्कार को लेकर समाज में एक क्रूर और विकृत किस्म की मानसिकता है, जिसकी वजह से पीड़ित को पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करने से लेकर अदालत में जाने तक हर जगह शर्म का अहसास करवाया जाता है, उसे बेहद अपमानित किया जाता है। बहुत सारे लोग ऐसे मामलों में घृणित रूप से रस लेते हैं। पीड़िता के साथ उसके परिजनों, संबंधियों और सहानुभूति रखने वालों को भी अपमानित किया जाता है। हालांकि अब अपराध को दबाने और अपराधी से डरने की प्रवृत्ति खत्म होने लगी है। इसलिए ऐसे अपराध सामने आने लगे हैं। अन्यायी तब तक अन्याय करता है, जब तक उसे सहा जाए। महिलाओं में इस धारणा को पैदा करने के लिए न्याय-प्रणाली और मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। महिला सशक्तीकरण के तमाम दावों के बाद भी महिलाएं अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं।